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अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत

अपडेट करने की तारीख: 31 जुल॰

अवतारवाद भारतीय धार्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, विशेषकर हिंदू सनातन धर्म में। यह सिद्धांत मानता है कि दिव्य सत्ता या भगवान समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। भागवत और महाभारत के अनुसार, अवतारों का उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना है। पाँचरात्र मत में अवतारों के चार प्रमुख प्रकार (व्यूह, विभव, अंतर्यामी, अर्यावतार) बताए गए हैं। अवतारों की संख्या और संज्ञा में समय के साथ पर्याप्त विकास हुआ है। अवतारवाद का यह गहन सिद्धांत धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, जो मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करता है।



अवतारवाद


अवतारवाद भारतीय धार्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण और गहरा सिद्धांत है, खासकर हिंदू सनातन धर्म में। यह विचार कि दिव्य सत्ता या भगवान समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, हिंदू धर्म के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में व्यापक रूप से वर्णित है। आज हम अवतारवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे और यह विचार करेंगे कि क्या यह अवधारणा वास्तव में संभव है।


अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत


अवतारवाद का अर्थ


अवतार शब्द बना है "अव" उपसर्ग और "तृ" धातु से। "अव" का अर्थ है नीचे की तरफ और "तृ" का अर्थ है पार करना। अवतार का अर्थ है "ऊपर से नीचे आना" यानी एक दिव्य शक्ति या देवता का अपने ऊंचे स्थान से नीचे, मनुष्य लोक में आना। संस्कृत में 'अवतार' का अर्थ है 'उतरना' या 'अवतरण'। धार्मिक संदर्भ में, यह वह प्रक्रिया है जिसमें भगवान किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए मानव या किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।


हिंदू धर्म में अवतारवाद


पुराणों में अवतारवाद का वर्णन


अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत है। पुराणों में अवतारवाद का विस्तृत तथा व्यापक वर्णन मिलता है। भागवत के अनुसार, सत्वनिधि हरि के अवतारों की गणना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार न सूखनेवाले (अविदासी) तालाब से हजारों छोटी-छोटी नदियाँ (कुल्या) निकलती हैं, उसी प्रकार अक्षरय्य सत्वाश्रय हरि से भी नाना अवतार उत्पन्न होते हैं:

"अवतारा हासंख्येया हरे: सत्वनिधेद्विजा:। यथाऽविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश:।"


पाँचरात्र मत में अवतार प्रधानत: चार प्रकार के होते हैं-व्यूह (संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध), विभव, अंतर्यामी तथा अर्यावतार। विष्णु के अवतारों की संख्या २४ मानी जाती है (श्रीमद्भागवत २.६), परंतु दशावतार की कल्पना नितांत लोकप्रिय है जिनकी प्रख्यात संज्ञा इस प्रकार है:


जल अवतार : मत्स्य तथा कच्छप।

जलथल अवतार: वराह तथा नृसिंह।

वामन: खर्व।

दो राम: परशुराम, रघुनन्दन राम।

श्रीकृष्ण, बुद्ध (सकृप:), तथा कल्कि (अकृप:)।


हिंदू धर्म में भगवान विष्णु के दस अवतार (दशावतार) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ये अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए जाने जाते हैं। यह मान्यता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब भगवान किसी रूप में अवतरित होकर मानवता की रक्षा करते हैं।


  1. मत्स्य अवतार: भगवान विष्णु का मछली रूप।

  2. कूर्म अवतार: कच्छप रूप में विष्णु।

  3. वराह अवतार: वराह (सूअर) रूप।

  4. नृसिंह अवतार: आधा मानव, आधा सिंह।

  5. वामन अवतार: बौना ब्राह्मण।

  6. परशुराम अवतार: योद्धा ऋषि।

  7. राम अवतार: रामायण के नायक।

  8. कृष्ण अवतार: महाभारत के प्रमुख पात्र।

  9. बुद्ध अवतार: बुद्ध।

  10. कल्कि अवतार: भविष्य में आने वाला अवतार।


Avataravad: Bharatiya Parampara

अवतारों के भेद


अवतारों के विभिन्न भेद हैं:


  • पुरुषावतार

  • गुणावतार

  • कल्पावतार

  • मन्वंतरावतार

  • युगावतार

  • स्वल्पावतार

  • लीलावतार


कहीं-कहीं आवेशावतार आदि की भी चर्चा मिलती है, जैसे परशुराम। इस प्रकार अवतारों की संख्या तथा संज्ञा में पर्याप्त विकास हुआ है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अवतार वस्तुत: परमेश्वर का वह आविर्भाव है जिसमें वह किसी विशेष उद्देश्य को लेकर किसी विशेष रूप में, किसी विशेष देश और काल में, लोकों में अवतरण करता है। अवतारवाद भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो वेदों और पुराणों में गहरे रूप में वर्णित है।


अवतार के प्रकार


  • पूर्ण अवतार: जैसे श्री राम और श्री कृष्ण, जिनमें ईश्वर की पूरी शक्ति प्रकट होती है।

  • अंश अवतार: जैसे हनुमान जी और परशुराम, जो ईश्वर के कुछ अंश से बने हैं।


अवतार की आवश्यकता


अवतार की आवश्यकता धर्म की रक्षा, अधर्म का नाश, और मानवता को नैतिकता और धार्मिकता के मार्ग पर प्रेरित करने के लिए होती है। जब-जब धर्म का पतन और अधर्म का उदय होता है, तब ईश्वर स्वयं विभिन्न रूपों में अवतरित होकर संतुलन स्थापित करते हैं। भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बढ़ावा होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ। अवतारों का उद्देश्य केवल धार्मिक नियमों की स्थापना और पापियों का नाश करना ही नहीं है, बल्कि साधु-संतों की रक्षा और भक्तों को सही मार्ग दिखाना भी है। उदाहरण के लिए, भगवान राम और कृष्ण के अवतारों ने न केवल राक्षसों का नाश किया, बल्कि समाज में धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना भी की। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अवतारों का प्राकट्य अनिवार्य हो जाता है, जिससे समाज में संतुलन, शांति और नैतिकता बनी रहे।


अवतारवाद के पक्ष में तर्क


धार्मिक ग्रंथों में प्रमाण: हिंदू धर्म के विभिन्न ग्रंथों जैसे भगवद गीता, महाभारत, रामायण और पुराणों में अवतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये ग्रंथ अवतारवाद के सिद्धांत को मजबूत आधार प्रदान करते हैं।अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना भगवद गीता के श्लोक 4.7-8 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥"

इसका अर्थ है, जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतरित होता हूँ। यह तर्क अवतारवाद की आवश्यकता को स्पष्ट करता है कि जब अधर्म बढ़ता है और संसार में असंतुलन होता है, तब ईश्वर अवतार लेकर इस असंतुलन को समाप्त करते हैं।


धार्मिक और नैतिक उद्देश्य: अवतार का उद्देश्य केवल धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना नहीं है, बल्कि नैतिकता और मानवता को सही दिशा में प्रेरित करना भी है। तुलसीदस ने भी राम चरित मानस में कहा है:

"जब-जब होइ धरम के हानि, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी। करहिं अनीति जयें नहिं रघुनाथा, सजहिं कृपा करी हरि अवतारा॥" जब-जब धर्म की हानि होती है और असुर, अधम, अभिमानी बढ़ते हैं, जब नीति नहीं रहती, तब भगवान कृपा कर अवतार लेते हैं।


भक्तों का अनुभव: कई भक्तों और संतों ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों में अवतारों के दर्शन और उनकी कृपा का वर्णन किया है।

यहाँ कुछ प्रमुख उद्धरण दिए गए हैं जो इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं:

मीरा बाई जी कहती हैं:

"पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो॥"

मैंने राम रतन धन पाया। मेरे सतगुरु ने कृपा करके यह अमूल्य वस्तु मुझे दी।

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय ।।

कबीर दास जी कहते हैं की दु :ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो । ।

संत तुकाराम:

"हेची दान देगा देवा तुझा विसर न व्हावा। गजेंद्रासि संकट आले, तरी धावुनि गेला हरि॥"

हे भगवान, मुझे ऐसा वरदान दें कि मैं आपको कभी न भूलूँ। जैसे गजेंद्र पर संकट आने पर भगवान विष्णु ने दौड़कर उसकी रक्षा की।

संत रविदास:

"प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी। प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥"

हे प्रभु, आप चंदन हैं और मैं पानी हूँ, आपकी सुगंध मेरे हर अंग में समा गई है। हे प्रभु, आप बादल हैं और मैं मोर हूँ, जैसे चकोर चंद्रमा को देखता है, वैसे ही रविदास भी आप को निहारता है।

सूरदास:

"मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।

मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?

कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात।

पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात॥॥"

श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैया! दाऊ दादा ने मुझे बहुत चिढ़ाया है। मुझसे कहते हैं “तुझे मोल लिया हुआ है, यशोदा मैया ने भला तुझे कब जन्म दिया। क्या करूँ, इसी क्रोध के मारे मैं खेलने नहीं जाता। वे बार-बार कहते हैं “तेरी माता कौन है? तेरे पिता कौन हैं?...

संत एकनाथ:

"जगदंबा पार्वती माय, तुझा बाल मी तुजवीण कोणा। कृपाशील हृदयां कृपावीण कैचा, वसे माता श्रीनाथाचा॥"

जगदंबा पार्वती माँ, मैं तेरा बालक हूँ, तेरे बिना कौन है मेरा। कृपाशील हृदय में कृपा के बिना क्या है, माँ श्रीनाथ जी का वास है।

रामकृष्ण परमहंस:

"जो भक्त एक बार भगवान का नाम लेकर बुलाते हैं, भगवान उनकी सुनते हैं और उन पर कृपा करते हैं।"

इसप्रकार हम देखते हैं कि भक्तों और संतों ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों में अवतारों के दर्शन और उनकी कृपा का वर्णन किया है। उनके अनुभव हमें यह समझने में मदद करते हैं कि अवतारवाद केवल एक धार्मिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह भक्तों की आस्था और विश्वास का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है।


साधुओं का उद्धार: अवतार का उद्देश्य केवल धर्म की स्थापना ही नहीं, बल्कि साधु-संतों का उद्धार करना भी होता है। ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा करने और उन्हें सही मार्ग दिखाने के लिए अवतार लेते हैं। यह सिद्धांत भक्तों के विश्वास और उनकी आस्था को मजबूत करता है। "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ।


मुक्ति का दान: उपर्युक्त उद्देश्य भी अवतार के लिए गौण रूप ही माने जाते हैं। अवतार का मुख्य प्रयोजन इससे सर्वथा भिन्न है। सर्वैश्यर्वसंपन्न त्रिगुणातीत , कालातीत और सर्वनिरपेक्ष ईश्वर के लिए दुष्टदलन और साधुरक्षण का कार्य तो उनकी इच्छा शक्ति से भी सिद्ध हो सकता है, तब भगवान के अवतार का मुख्य प्रयोजन क्या हो सकता है। यहाँ पर श्रीमद्भागवत (१०.२९.१४) कहती है :

नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवती भुवि। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणास्य गुणात्मन:।। मानवों को साधन निरपेक्ष मुक्ति का दान ही भगवान के प्राकट्य का जागरूक प्रयोजन है। भगवान स्वत: अपने लीलाविलास से, अपने अनुग्रह से, साधकों को बिना किसी साधना की अपेक्षा रखते हुए, मुक्ति प्रदान करते हैं-अवतार का यही मौलिक तथा प्रधान उद्देश्य है।


अवतारवाद के विपक्ष में तर्क


वैज्ञानिक दृष्टिकोण: विज्ञान के दृष्टिकोण से अवतारवाद की अवधारणा को प्रमाणित करना कठिन है। विज्ञान ऐसे घटनाओं की पुष्टि के लिए ठोस प्रमाण और तर्क की मांग करता है, जो अवतारवाद में अभावित हैं।

तार्किक समस्याएँ: यदि भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं, तो उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होने की आवश्यकता क्यों है? क्या वह अपनी शक्तियों का उपयोग करके समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते?

महर्षि दयानंद सरस्वती और आर्य समाज

महर्षि दयानंद सरस्वती और आर्य समाज के अनुसार, वेदों में अवतारवाद का कोई उल्लेख नहीं है। वे मानते हैं कि ईश्वर अजन्मा है और उसे संसार में अवतरित होने की आवश्यकता नहीं होती। वह अपनी सर्वशक्ति और सर्वज्ञता के कारण किसी भी समस्या का समाधान कर सकता है। इसलिए, अवतारवाद को वे मिथक मानते हैं।

ईश्वर अजन्मा है

ईश्वर अजन्मा, अजर और अमर है। उसे किसी भी रूप में पृथ्वी पर आने की आवश्यकता नहीं है। वह अपनी शक्तियों के माध्यम से किसी भी समस्या को हल कर सकता है। यह तर्क लॉजिकल दृष्टिकोण से भी मजबूत है, क्योंकि सर्वशक्तिमान ईश्वर को अवतार लेने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी? (ऋग्वेद 10.90.2):

"सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम्॥"यह पुरुष (ईश्वर) सहस्रों सिरों वाला, सहस्रों आंखों वाला और सहस्रों पैरों वाला है। वह सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके दस अंगुल ऊंचा खड़ा है। वह अजन्मा है।

श्वेताश्वतर उपनिषद (6.9 के अनुसार:

"न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्। स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिप:॥"

इस संसार में उसका कोई स्वामी नहीं है, न ही वह किसी का अधीनस्थ है। उसका कोई लिंग (चिह्न) नहीं है। वह सभी कारणों का कारण है, और उसपर कोई शासन नहीं करता। उसका न कोई जन्मदाता है और न कोई स्वामी।


अवतारवाद एक गहरा और विस्तृत विषय है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। हालांकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे प्रमाणित करना कठिन है, लेकिन यह विचार लाखों लोगों के विश्वास और आस्था का हिस्सा है। अवतारवाद का उद्देश्य मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करना है, जो किसी भी समाज के लिए महत्वपूर्ण है।


लॉजिकल विश्लेषण


प्रकृति का नियम: अगर हम मानते हैं कि प्रकृति के नियमों को ईश्वर ने बनाया है, तो जब इन नियमों में कोई गड़बड़ी होती है, तो ईश्वर को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है। यह हस्तक्षेप अवतार के रूप में होता है। जैसे जब किसी मशीन में गड़बड़ी होती है, तो उसका निर्माता उसे सुधारने के लिए हस्तक्षेप करता है, वैसे ही ईश्वर भी अवतार लेकर संसार की समस्याओं का समाधान करते हैं। जैसे माता-पिता अपने बच्चे को जन्म देकर उसका पालन करते हैं, लेकिन जब बच्चे के शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न होती है, तो वे दवा या औषधियों का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार, ईश्वर भी जब प्रकृति में गड़बड़ी देखते हैं, तो अवतार के रूप में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रकार हम अवतारवाद के सिद्धांत को समझ सकते हैं।


बौद्ध धर्म और जैन धर्म में अवतारवाद पर दृष्टिकोण


बौद्ध धर्म में अवतारवाद:

बौद्ध धर्म में अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म की तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन कुछ समानताएं अवश्य मिलती हैं। बौद्ध धर्म मुख्यतः गौतम बुद्ध के शिक्षाओं पर आधारित है, जिनका जन्म एक सामान्य मानव के रूप में हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान और तपस्या से बुद्धत्व प्राप्त किया। बौद्ध धर्म में 'बोधिसत्व' की अवधारणा महत्वपूर्ण है, जो उन आत्माओं को संदर्भित करती है जो बुद्धत्व प्राप्त करने के मार्ग पर हैं और अन्य प्राणियों की सहायता करने के लिए पुनर्जन्म लेते हैं। वह बुद्ध को एक मानव और महान शिक्षक मानतें हैं, न कि किसी देवता का अवतार।


जैन धर्म में अवतारवाद:

जैन धर्म में भी अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म से भिन्न है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुके महापुरुष होते हैं और जो संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। तीर्थंकर न तो देवता होते हैं और न ही वे अवतार लेते हैं। वे सामान्य मनुष्यों की तरह जन्म लेते हैं, लेकिन अपने तप और साधना से आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।

जैन धर्म में कर्म और पुनर्जन्म की अवधारणा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह अवतारवाद से भिन्न है। तीर्थंकरों का जन्म और कर्म उनके पिछले जन्मों के संचित कर्मों का परिणाम होता है। वे अपने आध्यात्मिक साधना से मोक्ष प्राप्त करते हैं और अन्य प्राणियों को भी मोक्ष मार्ग दिखाते हैं।


बौद्ध धर्म और जैन धर्म, दोनों ही धर्मों में अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म की तुलना में भिन्न है। बौद्ध धर्म में बुद्ध को एक मानव शिक्षक और जाग्रत आत्मा माना जाता है, न कि किसी देवता का अवतार। जैन धर्म में तीर्थंकरों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त महापुरुष माना जाता है, जो अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त करते हैं और अन्य प्राणियों को भी मोक्ष मार्ग दिखाते हैं। दोनों ही धर्मों में आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति पर जोर दिया गया है, जो उनके धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का मुख्य हिस्सा है।


अवतारवाद के पक्ष और विपक्ष दोनों में तर्क हैं। यह हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यताओं पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे देखते हैं। हमारे समाज में अवतारवाद की मान्यता प्रबल है और यह हमारे धार्मिक ग्रंथों और पूजा-पद्धति का हिस्सा है। अवतारवाद को समझने के लिए हमें इसके दर्शन और तर्क दोनों को देखना होगा और फिर अपने विचारों को विकसित करना होगा।


अवतारवाद एक गहरा और विस्तृत विषय है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। हालांकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे प्रमाणित करना कठिन है, लेकिन यह विचार लाखों लोगों के विश्वास और आस्था का हिस्सा है। अवतारवाद का उद्देश्य मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करना है, जो किसी भी समाज के लिए महत्वपूर्ण है।

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